कोदंड कठिन चढ़ाइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों।
Aranya Kand
श्याम तामरस दाम शरीरं। जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं॥
सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। तजहु सोच मन आनहु धीरा॥
अजहुँ जासु उर सपनेहुँ काऊ। बसहुँ लखनु सिय रामु बटाऊ॥
सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए। हरि बिलोकि लोचन जल छाए॥
जल भरि नयन कहहिं रघुराई। तात कर्म निज तें गति पाई॥
जब रघुनाथ समर रिपु जीते। सुर नर मुनि सब के भय बीते॥
श्रीरामचन्द्रजीने चित्रकूट में भरत जी से कहा-
चित्रकूट सब दिन बसत प्रभु सिय लखन समेत|
करि केहरि कपि कोल कुरंगा। बिगतबैर बिचरहिं सब संगा॥
परहित बस जिन्ह के मन माहीं। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥
लछिमन समुझाए बहु भाँति। पूछत चले लता तरु पाँती॥
पंचबटी बट बिटप तर सीता लखन समेत।
प्रभु पद रेख बीच बिच सीता। धरति चरन मग चलति सभीता॥
जो गति जोग बिराग जतन करि नहिं पावत मुनि ग्यानी।
रघुबर बिकल बिहंग लखि सो बिलोकि दोउ बीर।
गीध देह तजि धरि हरि रूपा। भूषन बहु पट पीत अनूपा॥
जल भरि नयन कहहिं रघुराई। तात कर्म निज तें गति पाई॥
पूरकनाम राम सुख रासी। मनुजचरित कर अज अबिनासी॥
जाकर नाम मरत मुख आवा। अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा॥
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं।।
सति भाउ कै सपनो ? निहारि कुमार कोसलरायके। गहे चरन, जे अघहरन नत जन-बचन-मानस-कायके॥
है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ। पावन पंचबटी तेहि नाऊँ॥
धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना॥
निगम नेति सिव ध्यान न पावा। मायामृग पाछें सो धावा॥
निगम नेति सिव ध्यान न पावा। मायामृग पाछें सो धावा॥
निगम नेति सिव ध्यान न पावा। मायामृग पाछें सो धावा॥
सत्यसंध प्रभु बधि करि एही। आनहु चर्म कहति बैदेही॥
लछिमन कर प्रथमहिं लै नामा। पाछें सुमिरेसि मन महुँ रामा॥
मारीच