कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥
Bhagwan ke Bhakt
मामवलोकय पंकज लोचन। कृपा बिलोकनि सोच बिमोचन॥
सदा राम प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन भवन अमान।
नाथ जथामति भाषेउँ राखेउँ नहिं कछु गोइ।
कागभुशुण्डि जी की कथा
संत असंत मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु॥
गरुड़जी और कागभुशुण्डि संवाद
बाँह छुड़ाए जात हौ, निबल जानिकै मोहि।
चित्रकेतु व भगवान श्रीशेष जी
फिर ये चित्रकेतु शिवजी का व्यंग करते है तो पार्वतीजी क्रोधित होकर इनको राक्षस होने का श्राप दे देती है, और ये वृत्तासुर बन जाते है।
सो सुतंत्र अवलंब न आना। तेहि आधीन ग्यान बिग्याना॥
वह भक्ति स्वतंत्र है, उसको (ज्ञान-विज्ञान आदि किसी) दूसरे साधन का सहारा (अपेक्षा) नहीं है। ज्ञान और विज्ञान तो उसके अधीन हैं। हे तात! भक्ति अनुपम एवं सुख की मूल है और वह तभी मिलती है, जब संत अनुकूल (प्रसन्न) होते हैं॥
राम सिंधु घन सज्जन धीरा। चंदन तरु हरि संत समीरा॥
तुलसी मेरे राम को रीझ भजो या खीज ।
जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥
नारदजी को स्त्रीरूप की प्राप्ति
भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥
नारद मोह की कथा
जनहि मोर बल निज बल ताही। दुहु कहँ काम क्रोध रिपु आही॥
कुलिसह चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि।
जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई॥
चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥
नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥
One who could not be bounded by Tapasvi Rishis can only be bounded by love. Shri Damodar.
चतुर्दश परम भागवत और उनके आराध्य-
कुलिसह चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि।
एक एक रिपुते त्रासित जन,तुम राखे रघुबीर।
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई॥
राम-नाम मनि दीप धरु, जीह देहरी द्वार।
जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई॥
भक्त विष्णुदास पर कृपा
नाहं वसामि वैकुंठे योगिनां हृदये न च।
कोई तन दुखी कोई मन दुखी कोई धन बिन रहे उदास।।