गयउ सभा दरबार तब सुमिरि राम पद कंज।
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तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए। लछिमन रचि निज हाथ डसाए॥
पापवंत कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ॥
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढोल गंवार शुद्र पशु नारी चौपाई की स्वामी श्रीरामसुखदास जी महाराज द्वारा व्याख्या
द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।
कालजयी मूल्यों का पर्व विजयादशमी
तेहिं मध्य कोसलराज सुंदर स्याम तन सोभा लही।
जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं।
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।
देखि अजय रिपु डरपे कीसा। परम क्रुद्ध तब भयउ अहीसा॥
बिस्व द्रोह रत यह खल कामी। निज अघ गयउ कुमारगगामी॥
चढ़ि बिमान सुनु सखा बिभीषन। गगन जाइ बरषहु पट भूषन॥
तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता। सदा रहेहु पुर आवत जाता॥
जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं। ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं॥
निज दल बिकल सुना हनुमाना। पच्छिम द्वार रहा बलवाना॥
जब पाहन भे बनबाहन से, उतरे बनरा, 'जय राम' रढ़ें। तुलसी लिएँ सैल-सिला सब सोहत, सागरु ज्यों बल बारि बढ़ें॥
सहसभुज-मत्तगजराज-रनकेसरी परसुधर गर्बु जेहि देखि बीता॥
बहुरि राम छबिधाम बिलोकी। रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी॥
मारुत सुत मैं कपि हनुमाना। नामु मोर सुनु कृपानिधाना॥
सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं। जनु नीलगिरि पर तड़ित पटल समेत उडुगन भ्राजहीं॥
जब रघुनाथ समर रिपु जीते। सुर नर मुनि सब के भय बीते॥
धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा। तब सर हति प्रभु कृत दुइ खंडा॥
सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा । सर संधान कीन्ह करि दापा॥
लियो उठाय कुधर कंदुक-ज्यौं, बेग न जाइ बखानि।
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।
मुनि जेहि ध्यान न पावहिं नेति नेति कह बेद।
राघवं रामचन्दं च रावणारिं रमापतिम्।
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी। मम पन सरनागत भयहारी॥
सुर बानर देखे बिकल हँस्यो कोसलाधीस।
सर चाप मनोहर त्रोन धरं। जलजारुन लोचन भूपबरं॥