सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे ॥
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जगत बिदित तुम्हारि प्रभुताई। सुत परिजन बल बरनि न जाई॥
कृपादृष्टि करि बृष्टि प्रभु अभय किए सुर बृंद।
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुंदर नीति॥
एतत् कुक्षौ समुद्रस्य स्कन्धावारनिवेशनम्।
सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा॥
लिंग थापि बिधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा॥
जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिसि बह सरजू पावनि॥
राम राज बैठें त्रैलोका । हरषित भए गए सब सोका॥
आवत देखि सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भंजन पन मोरा॥
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ। जद्यपि अखिल लोक कर राऊ॥