देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि।
Shri Bharat ji
भरतु अवधि सनेह ममता की। जद्यपि रामु सीम समता की।
तन मन बचन उमग अनुरागा। धीर धुरंधर धीरजु त्यागा॥
देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि।
चरनपीठ करुनानिधान के। जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के॥
भरत सील गुर सचिव समाजू। सकुच सनेह बिबस रघुराजू॥
पुलक गात हियँ सिय रघुबीरू। जीह नामु जप लोचन नीरू॥
तात अनादि सिद्ध थल एहू। लोपेउ काल बिदित नहिं केहू॥
राम भगत हित नर तनु धारी। सहि संकट किए साधु सुखारी॥
जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥
कपिसों कहति सुभाय, अंबके अंबक अंबु भरे हैं। रघुनंदन बिनु बंधु कुअवसर, जद्यपि धनु दुसरे हैं॥
सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम सिय दरसनु पावा॥
चल्यो नभ नाइ माथ रघुनाथहि, सरिस न बेग बियो है॥
तात गहरु होइहि तोहि जाता। काजु नसाइहि होत प्रभाता॥
सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामहि सेवकु परम पिआरा॥
मिटिहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार । लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार ॥
राम भगत परहित निरत पर दु:ख दुखी दयाल।
जटाजूट सिर मुनिपट धारी। महि खनि कुस साँथरी सँवारी॥
राम मातु गुर पद सिरु नाई। प्रभु पद पीठ रजायसु पाई॥
सुनि सिख पाइ असीस बड़ि गनक बोलि दिनु साधि।
अब कृपाल जस आयसु होई। करौं सीस धरि सादर सोई॥
होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को॥
कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनाम करत रघुनाथा॥
मन अगहुँड़, तनु पुलक सिथिल भयो, नलिन नयन भरे नीर। गड़त गोड़ मानो सकुच-पंक महँ, कढ़त प्रेम-बल धीर॥
भरत सील गुर सचिव समाजू। सकुच सनेह बिबस रघुराजू॥
राघवं रामचन्दं च रावणारिं रमापतिम् ।
परिहरि रामु सीय जग माहीं। कोउ न कहिहि मोर मत नाहीं॥
भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी॥
चरण पादुका तुम ले जाओ। पूजा कर दर्शन फल पावो॥
परम पुनीत भरत आचरनू। मधुर मंजु मुद मंगल करनू॥