लघु बायस बपु धरि हरि संगा। देखउँ बालचरित बहु रंगा॥
Uttarkand
गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं॥
सुदिन सोधि गुरु बेद बिधि कियो राज अभिषेक।
रामादन्यं यथाहं वै मनसापि न चिन्तये ।
प्रेमाकुल प्रभु मोहि बिलोकी, निज माया प्रभुता तब रोकी॥
कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हे। दान अनेक द्विजन्ह कहँ दीन्हे॥
जौं मन बच क्रम मम उर माहीं। तजि रघुबीर आन गति नाहीं॥
मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा॥
आवत देखि लोग सब कृपासिंधु भगवान।
रसोद्भवा
जो माया सब जगहि नचावा। जासु चरित लखि काहुँ न पावा॥
सब मम प्रिय नहिं तुम्हहि समाना। मृषा न कहउँ मोर यह बाना।
जम्बुद्विपे..भरत खंडे..आर्यावर्ते..भारतवर्षे..
लवकुश
अमर अनंदित मुनि मुदित मुदित भुवन दस चारि ।
तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई तासु नास कल्पांत न होई॥
सुनहु राम कर सहज सुभाऊ। जन अभिमान न राखहिं काऊ॥
कीन्ह दंडवत तीनिउँ भाई। सहित पवनसुत सुख अधिकाई॥
मानस में प्रेमतत्व
सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनइ न जाइ बखानी॥
आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा। तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा॥
हिमगिरि कोटि अचल रघुबीरा। सिंधु कोटि सत सम गंभीरा॥
हनूमान सम नहिं बड़भागी। नहिं कोउ राम चरन अनुरागी॥
जनकसुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार।
रिपु रन जीति सुजस सुर गावत। सीता सहित अनुज प्रभु आवत॥
रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे
राम त्वत्तोऽधिकं नाम इति मे निश्चिता मतिः। त्वयैका तारिताऽयोध्या नाम्ना तु भुवनत्रयम् ॥
हनुमान् जी की चुटकी सेवा-
वरं ममैव मरणं मद्भक्तो हन्यते कथम् ।
पद्म पुराण में विभीषण को बंधन मुक्त करवाना
'हे द्विजवरो! विभीषण को तो मैं अखण्ड राज्य और आयु दे चुका, वह तो मर नहीं सकता। फिर उसके मरनेकी ही क्या जरूरत है? वह तो मेरा भक्त है, भक्तके लिये मैं स्वयं मर सकता हूँ। सेवकके अपराधी की जिम्मेवारी तो - वास्तवमें स्वामीपर ही होती है। नौकरके दोषसे स्वामी ही दण्डका पात्र होता है,
मारुत सुत मैं कपि हनुमाना। नामु मोर सुनु कृपानिधाना॥
जनकसुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार ।