कौसल्येय
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सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामहि सेवकु परम पिआरा॥
मिटिहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार । लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार ॥
राम भगत परहित निरत पर दु:ख दुखी दयाल।
जटाजूट सिर मुनिपट धारी। महि खनि कुस साँथरी सँवारी॥
राम मातु गुर पद सिरु नाई। प्रभु पद पीठ रजायसु पाई॥
सुनि सिख पाइ असीस बड़ि गनक बोलि दिनु साधि।
अब कृपाल जस आयसु होई। करौं सीस धरि सादर सोई॥
होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को॥
कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनाम करत रघुनाथा॥
मन अगहुँड़, तनु पुलक सिथिल भयो, नलिन नयन भरे नीर। गड़त गोड़ मानो सकुच-पंक महँ, कढ़त प्रेम-बल धीर॥
सिव समान प्रिय मोहि न दूजा।
चतुर्दश परम भागवत और उनके आराध्य-
कुलिसह चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि।
कोटि-कोटि शत मदन-रति सहज विनिन्दक रूप।
एक एक रिपुते त्रासित जन,तुम राखे रघुबीर।
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई॥
महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
तुलसी यह तनु तवा है, तपत सदा त्रैताप।
आरतपाल कृपाल जो रामु जेहीं सुमिरे तेहिको तहँ ठाढ़े।
सहित दोष दु:ख दास दुरासा। दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा॥
राम-नाम मनि दीप धरु, जीह देहरी द्वार।
जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥
कबहुँ समय सुधि द्यायबी, मेरी मातु जानकी।
मारुत सुत मैं कपि हनुमाना। नामु मोर सुनु कृपानिधाना॥
माता रुक्मिणी का संदेश (2/3)
माता रुक्मिणी का संदेश (1/3)
गंगाधर
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