सत्यसंध प्रभु बधि करि एही। आनहु चर्म कहति बैदेही॥
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प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई॥
जेहिं ताड़का सुबाहु हति खंडेउ हर कोदंड।
लछिमन कर प्रथमहिं लै नामा। पाछें सुमिरेसि मन महुँ रामा॥
मारीच
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बंधु प्रनतारति हरना॥
सत्यसंध प्रभु बधि करि एही। आनहु चर्म कहति बैदेही॥
कार्तिकस्यासिते पक्षे त्रयोदश्यां निशामुखे ।
धनतेरस को दीपदान
सकुण्डलं चारुकिरीटभूषणं बभौ पृथिव्यां पतितं समुज्ज्वलत्।
नरकासुर वध
नारायणं निराकारं नरवीरं नरोत्तमम्।
केस सँवारि, रय बेनी रचि, सुरभित सुमन गुँथाए।
रामसेतु बनाते समय श्री रामजी ने समुद्र में एक पत्थर को बिना 'राम नाम' लिखे ऐसे ही 'छोड़' दिया, वह पत्थर डूब गया तब हनुमानजी ने कहा कि प्रभु आपका नाम लिखने से तो पाषाण भी तैर(तर) जाते है, परंतु यदि जिसको आपने ही 'छोड़' दिया तो उसका डूबना तो निश्चित ही है।
कल्पान्ते मम सायुज्यं प्राप्स्यसे नात्र संशयः।
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता, अस बर दीन जानकी माता॥
राम त्वत्तोऽधिकं नाम इति मे निश्चिता मतिः। त्वयैका तारिताऽयोध्या नाम्ना तु भुवनत्रयम् ॥
हनुमान् जी की चुटकी सेवा-
दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु छाती॥
दशरथ जी के कैकई माता को दिए दो वरदान
सुंदर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे
भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी॥
भगवान श्रीहरि को शंकरजी से सुदर्शन चक्र आज वैकुंठ चतुर्दशी के दिन प्राप्त हुआ था-
विष्णु भगवान्ने उसी चक्रकी सहायतासे असुरोंका बिना परिश्रम बहुत शीघ्र ही विनाश कर डाला और तीनों लोकोंमें आनन्दकी भेरी बजने लगी। उस चक्रको विष्णु भगवान् बहुत आदरपूर्वक धारण किये रहते हैं और जब-जब शत्रुओंका संहार करना होता है, तब-तब उसे काममें लाते हैं।
बैकुंठ चतुर्दशी
आश्विनस्यासिते पक्षे भूतायां च महानिशि।
अबिरल भगति बिसुद्ध तव श्रुति पुरान जो गाव।
जयति वेदान्तविद विविध-विद्या-विशद, वेद-वेदांगविद ब्रह्मवादी।
या श्रद्धा धारणा मेधा वाग्देवी विधिवल्लभा।
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।
कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना। कतहुँ राम गुन करहिं बखाना॥
वरं ममैव मरणं मद्भक्तो हन्यते कथम् ।
पद्म पुराण में विभीषण को बंधन मुक्त करवाना
'हे द्विजवरो! विभीषण को तो मैं अखण्ड राज्य और आयु दे चुका, वह तो मर नहीं सकता। फिर उसके मरनेकी ही क्या जरूरत है? वह तो मेरा भक्त है, भक्तके लिये मैं स्वयं मर सकता हूँ। सेवकके अपराधी की जिम्मेवारी तो - वास्तवमें स्वामीपर ही होती है। नौकरके दोषसे स्वामी ही दण्डका पात्र होता है,
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
सुखिया मालिन
बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥