लियो उठाय कुधर कंदुक-ज्यौं, बेग न जाइ बखानि।
Shri Raghunath ji
चलयो हनुमानु, सुनि जातुधानु कालनेमि।
सर पैठत कपि पद गहा मकरीं तब अकुलान।
निगम नेति सिव ध्यान न पावा। मायामृग पाछें सो धावा॥
निगम नेति सिव ध्यान न पावा। मायामृग पाछें सो धावा॥
निगम नेति सिव ध्यान न पावा। मायामृग पाछें सो धावा॥
सत्यसंध प्रभु बधि करि एही। आनहु चर्म कहति बैदेही॥
प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई॥
जेहिं ताड़का सुबाहु हति खंडेउ हर कोदंड।
लछिमन कर प्रथमहिं लै नामा। पाछें सुमिरेसि मन महुँ रामा॥
मारीच
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बंधु प्रनतारति हरना॥
सत्यसंध प्रभु बधि करि एही। आनहु चर्म कहति बैदेही॥
रामसेतु बनाते समय श्री रामजी ने समुद्र में एक पत्थर को बिना 'राम नाम' लिखे ऐसे ही 'छोड़' दिया, वह पत्थर डूब गया तब हनुमानजी ने कहा कि प्रभु आपका नाम लिखने से तो पाषाण भी तैर(तर) जाते है, परंतु यदि जिसको आपने ही 'छोड़' दिया तो उसका डूबना तो निश्चित ही है।
कल्पान्ते मम सायुज्यं प्राप्स्यसे नात्र संशयः।
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता, अस बर दीन जानकी माता॥
राम त्वत्तोऽधिकं नाम इति मे निश्चिता मतिः। त्वयैका तारिताऽयोध्या नाम्ना तु भुवनत्रयम् ॥
हनुमान् जी की चुटकी सेवा-
दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु छाती॥
दशरथ जी के कैकई माता को दिए दो वरदान
सुंदर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे
भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी॥
आश्विनस्यासिते पक्षे भूतायां च महानिशि।
अबिरल भगति बिसुद्ध तव श्रुति पुरान जो गाव।
जयति वेदान्तविद विविध-विद्या-विशद, वेद-वेदांगविद ब्रह्मवादी।
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।
वरं ममैव मरणं मद्भक्तो हन्यते कथम् ।
पद्म पुराण में विभीषण को बंधन मुक्त करवाना
'हे द्विजवरो! विभीषण को तो मैं अखण्ड राज्य और आयु दे चुका, वह तो मर नहीं सकता। फिर उसके मरनेकी ही क्या जरूरत है? वह तो मेरा भक्त है, भक्तके लिये मैं स्वयं मर सकता हूँ। सेवकके अपराधी की जिम्मेवारी तो - वास्तवमें स्वामीपर ही होती है। नौकरके दोषसे स्वामी ही दण्डका पात्र होता है,
मुनि जेहि ध्यान न पावहिं नेति नेति कह बेद।
मारुत सुत मैं कपि हनुमाना। नामु मोर सुनु कृपानिधाना॥
जनकसुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार ।
प्रेमातुर सब लोग निहारी। कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी॥