भगति कि साधन कहउँ बखानी। सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी॥
Shri Raghunath ji
कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुंदर नीति॥
अगम पंथ बनभूमि पहारा । करि केहरि सर सरित अपारा॥
अंजना नंदनं वीरं जानकी शोकनाशनम् ।
श्रीरामं सहलक्ष्मणं सकरुणं सीतान्वितं सात्त्विकं वैदेहीमुखपद्मलुब्धमधुपं पौलस्त्यसंहारकम्।
गोष्पदी-कृत-वारीशं मशकी-कृत-राक्षसम् । रामायण-महामाला-रत्नं वन्देऽनिलात्मजम् ॥
तुलसी सहित सनेह नित सुमिरहु सीता राम।
सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन। नयन नवल राजीव लजावन॥
एतत् कुक्षौ समुद्रस्य स्कन्धावारनिवेशनम्।
सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा॥
लिंग थापि बिधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा॥
श्रीरामजी के अनन्य सेवक श्रीपवनकुमार के स्पर्श से देवी तो पाताल में प्रविष्ट हो गयीं और उनके स्थान पर स्वयं श्रीरामदूत देवी रूप में भयानक मुख फाड़कर खड़े हो गये और अहिरावण जितनी सामग्री देवी को अर्पित करता वे सब हनुमानजी ग्रहण कर लेते थे।
जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिसि बह सरजू पावनि॥
सुनहु भानुकुल केतु जामवंत कर जोरि कह।
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥
जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी॥
जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी॥
सब पर राम तपस्वी राजा
सब पर राम तपस्वी राजा
तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै। मांडवी श्रुतकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि कै॥
जटाजूट सिर मुनिपट धारी। महि खनि कुस साँथरी सँवारी॥
राम राज बैठें त्रैलोका । हरषित भए गए सब सोका॥
एहि बिधि सकल कथा समुझाई। लिए दुऔ जन पीठि चढ़ाई॥
ब्रह्म राम साकार बने जब प्रेम पुरातन चीनौ।
जा पर कृपा राम की होई, ता पर कृपा करें सब कोई।
सत्यं राक्षसराजेन्द्र शृणुष्व वचनं मम।
पुलकित गात अत्रि उठि धाए। देखि रामु आतुर चलि आए॥
रामो राजमणि: सदा विजयते रामं रमेशं भजे ।
भव सागर चह पार जो पावा। राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा॥