राम चलत अति भयउ बिषादू। सुनि न जाइ पुर आरत नादू॥
Shri Raghunath ji
अंतरजामिहुतें बड़े बाहेरजामि हैं राम, जे नाम
रायँ राम राखन हित लागी। बहुत उपाय किए छलु त्यागी॥
राम-नाम मनि दीप धरु, जीह देहरी द्वार।
कोई तन दुखी कोई मन दुखी कोई धन बिन रहे उदास।।
हनूमानपि तं प्राह नत्वा रामं प्रहृष्टधीः ।
एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास।
राम कपिन्ह जब आवत देखा। किएँ काजु मन हरष बिसेषा॥
आवत देखि सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भंजन पन मोरा॥
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ। जद्यपि अखिल लोक कर राऊ॥
जनगुन रज गिरि गनि, सकुचत निज गुन गिरि रज परमानु हैं।
जासु कथा कुंभज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥
जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई ॥
जसुमति अपनौ पुन्य बिचारै। बार-बार सिसु बदन निहारै॥ अँग फरकाइ अलप मुसकाने। या छबि की उपमा को जानै॥
सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी॥
संकल्पि सिय रामहि समरपी सील सुख सोभामई।
शापवश मुनिवधू-मुक्तकृत, विप्रहित, यज्ञ-रक्षण-दक्ष, पक्षकर्ता।
जो गौतम मुनिकी स्त्री अहल्याको शापसे मुक्त करनेवाले, विश्वामित्रके यज्ञकी रक्षा करनेमें बड़े चतुर और अपने भक्तोंका पक्ष करनेवाले है तथा राजा जनककी सभामें शिवजी का धनुष तोड़कर महान् तेजस्वी एवं क्रोधी परशुरामजीके गर्व को हरण करनेवाले हैं ॥
उपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा॥
भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी॥
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा।।
प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा जाइ नहिं बरना॥
सो केवल भगतन हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी।।
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
तुम्ह बिनु दुखी सुखी तुम्ह तेहीं। तुम्ह जानहु जिय जो जेहि केहीं॥
दरस लालसा सकुच न थोरी। प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी॥
जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानू॥
दुष्ट विबुधारी-संघात, अपहरण महि-भार, अवतार कारण अनूपं।
गुरुशिष्य