गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।
Shri Raghunath ji
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता। तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता॥
कुम्भकरन-रावन पयोद-नाद-ईंधन को, तुलसी प्रताप जाको प्रबल अनल भो।
सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहिं नाघउँ जलनिधि खारा॥
शापवश मुनिवधू-मुक्तकृत, विप्रहित, यज्ञ-रक्षण-दक्ष, पक्षकर्ता।
भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
स तान् निहत्वा रणचण्डविक्रमः समीक्षमाणः पुनरेव लङ्काम्।
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु। बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु॥
द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।
पवनतनय मन भा अति क्रोधा। गर्जेउ प्रबल काल सम जोधा॥
निज दल बिकल सुना हनुमाना। पच्छिम द्वार रहा बलवाना॥
कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी। उर सर लागत मरइ सुरारी॥
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥
सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला ॥
धरि रूप पात्रक पानि गहि श्री सत्य स्रुति जग विदित जो।
तात अनादि सिद्ध थल एहू। लोपेउ काल बिदित नहिं केहू॥
श्रीरामचन्द्रजीने चित्रकूट में भरत जी से कहा-
चित्रकूट सब दिन बसत प्रभु सिय लखन समेत|
सब मम प्रिय नहिं तुम्हहि समाना। मृषा न कहउँ मोर यह बाना।
कर परसा सुग्रीव सरीरा । तनु भा कुलिस गई सब पीरा॥
करि केहरि कपि कोल कुरंगा। बिगतबैर बिचरहिं सब संगा॥
जब पाहन भे बनबाहन से, उतरे बनरा, 'जय राम' रढ़ें। तुलसी लिएँ सैल-सिला सब सोहत, सागरु ज्यों बल बारि बढ़ें॥
राम भगत हित नर तनु धारी। सहि संकट किए साधु सुखारी॥
सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू॥
श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी। जो सृजति जगु पालति हरति रुख पाइ कृपानिधान की॥
जो सहससीसु अहीसु महिधरु लखनु सचराचर धनी।
जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥
परहित बस जिन्ह के मन माहीं। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥