अघटित-घटन, सुघट-बिघटन, ऐसी बिरुदावलि नहिं आनकी। सुमिरत संकट-सोच-बिमोचन, मूरति मोद-निधानकी ॥
Shri Raghunath ji
जनकसुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार।
सरयुतट पर भगवान् श्रीसीतारामजी
निज पानि मनि महुँ देखि अति मूरति सुरूपनिधान की।
श्रीभगवान् का कथन है की, राम, दाशरथि, शूर, लक्ष्मणानुचर, बली, काकुत्स्थ, पुरुष, पूर्ण, कौसल्येय, रघूत्तम, वेदान्तवेद्य, यज्ञेश, पुरुषोत्तम, जानकीवल्लभ, श्रीमान्, अप्रमेयपराक्रम, इन नामों का नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक जप करने से मेरा भक्त अश्वमेध यज्ञ से अधिक फल प्राप्त करता है॥
रामो दाशरथिः शूरो लक्ष्मणानुचरो बली।
धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा। तब सर हति प्रभु कृत दुइ खंडा॥
रिपु रन जीति सुजस सुर गावत। सीता सहित अनुज प्रभु आवत॥
मैं गंगा तट का सेवक हूँ, तुम भवसागर के स्वामी हो।
छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई॥
केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥
पद नख निरखि देवसरि हरषी। सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी॥
जासु नाम सुमरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।।
बहु छल बल सुग्रीव कर हियँ हारा भय मानि।
इत्येवं बहु भाषन्तं वालिनं राघवोऽब्रवीत्।
जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी। सब के हृदयँ निरंतर बासी॥
भरत सील गुर सचिव समाजू। सकुच सनेह बिबस रघुराजू॥
अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँति। सब तजि भजनु करौं दिन राती॥
कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा॥
पंचमुखी हनुमानजी
है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ। पावन पंचबटी तेहि नाऊँ॥
धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना॥
जाको बालबिनोद समुझि जिय डरत दिवाकर भोरको।
महि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं।
सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम।
श्री सीतारामजी के ११ स्वरूप
सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा । सर संधान कीन्ह करि दापा॥
रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे
दूर्वा दलद्युति तनुं तरुणाब्ज नेत्रं, हेमाम्बरं बर विभूषण भूषिताङ्गम्।
अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू॥
ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी॥
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥