धृत शर धनुषं रघुकुल तिलकं। गरुडध्वज स्थित कौस्तुभ भरणं।
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
समुद्रमंथन से माता कामधेनु की उत्पत्ति
देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा। बैठेहिं बीति जात निसि जामा॥
स पद्मकोशः सहसोदतिष्ठत् कालेन कर्मप्रतिबोधनेन।
जय ताड़का- सुबाहु- मथन मारीच मानहर!
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना॥
मध्ये सुधाब्धिमणिमण्डपरत्नवेद्यां सिंहासनोपरिगतां परिपीतवर्णाम्।
वेदों के प्रतिपाद्य- पञ्चमहायज्ञ (Thread)
जौं नहिं फिरहिं धीर दोउ भाई। सत्यसंध दृढ़ब्रत रघुराई॥
आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा। तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा॥
जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई॥
मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भक्त विष्णुदास पर कृपा
बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु। कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु॥
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥
हिमगिरि कोटि अचल रघुबीरा। सिंधु कोटि सत सम गंभीरा॥
अंगद अरु हनुमंत प्रबेसा। कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा॥
भगवान् श्रीकृष्ण का श्रीउद्धव जी को उपदेश (१/२)
हनूमान सम नहिं बड़भागी। नहिं कोउ राम चरन अनुरागी॥
श्रीराधारमण
जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी॥
प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर प्रभु को नियम बदलते देखा।
जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥
अघटित-घटन, सुघट-बिघटन, ऐसी बिरुदावलि नहिं आनकी। सुमिरत संकट-सोच-बिमोचन, मूरति मोद-निधानकी ॥
सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥
लसत सरस सिंधुर-बदन, भालथली नखतेस।
गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥
करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥