भगवती
Shri Raghunath ji
सरयुतट पर भगवान् श्रीसीतारामजी
अढ़ुकि परहिं फिरि हेरहिं पीछें। राम बियोगि बिकल दु:ख तीछें॥
सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए। हरि बिलोकि लोचन जल छाए॥
कालजयी मूल्यों का पर्व विजयादशमी
देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि।
तेहिं मध्य कोसलराज सुंदर स्याम तन सोभा लही।
जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं।
जल भरि नयन कहहिं रघुराई। तात कर्म निज तें गति पाई॥
चरनपीठ करुनानिधान के। जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के॥
जब रघुनाथ समर रिपु जीते। सुर नर मुनि सब के भय बीते॥
अत्यन्त प्रेम के कारण वह अधीर हो गई। उसका शरीर पुलकित हो उठा, मुख से वचन कहने में नहीं आते थे। वह अत्यन्त बड़भागिनी अहल्या प्रभु के चरणों से लिपट गई और उसके दोनों नेत्रों से जल (प्रेम और आनंद के आँसुओं) की धारा बहने लगी॥
सम्पूर्ण सिद्धिदायक माता अहल्या कृत भगवान् की स्तुति
अति प्रेम अधीरा पुलक शरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।
सम्पूर्ण सिद्धिदायक माता अहल्या कृत स्तुति
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।
कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हे। दान अनेक द्विजन्ह कहँ दीन्हे॥
तुम्हरो मंत्र विभीषण माना, लंकेस्वर भए सब जग जाना॥
ये मंत्र
सब सुख लहै तुम्हारी सरना, तुम रक्षक काहू को डरना।
समदरसी मोहि कह सब कोऊ। सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ॥
श्री रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे।
चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालीगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन॥
पुरुषारथ स्वारथ सकल परमारथ परिनाम।
मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥
भरत सील गुर सचिव समाजू। सकुच सनेह बिबस रघुराजू॥
सुनत राम अति कोमल बानी। बालि सीस परसेउ निज पानी॥
कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा॥
जौं मन बच क्रम मम उर माहीं। तजि रघुबीर आन गति नाहीं॥
देखि अजय रिपु डरपे कीसा। परम क्रुद्ध तब भयउ अहीसा॥
बिस्व द्रोह रत यह खल कामी। निज अघ गयउ कुमारगगामी॥
राम कपिन्ह जब आवत देखा। किएँ काजु मन हरष बिसेषा॥
सिर लंगूर लपेटि पछारा। निज तनु प्रगटेसि मरती बारा॥