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वेदानुद्धरते जगन्निवहते भूगोलमुद्विभ्रते दैत्यं दारयते बलिं छलयते क्षत्रक्षयं कुर्वते।
वेदानुद्धरते जगन्निवहते भूगोलमुद्विभ्रते दैत्यं दारयते बलिं छलयते क्षत्रक्षयं कुर्वते।
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वेदानुद्धरते जगन्निवहते भूगोलमुद्विभ्रते दैत्यं दारयते बलिं छलयते क्षत्रक्षयं कुर्वते।
जो सदा ही आनन्दरूप, श्रेष्ठ सुखदायी स्वरूप वाले, ज्ञान के साक्षात् विग्रह रूप है। जो संसार के द्वन्द्वों(सुख-दुःख) से रहित, व्यापक आकाश के सदृश (निर्लिप्त) है, जो एक ही परमात्म तत्त्व (तत्त्वमसि) को सदैव लक्ष्य किये रहते है। जो एक है, नित्य है, सदैव शुद्ध स्वरूप है, अचल रहने वाले
जो सदा ही आनन्दरूप, श्रेष्ठ सुखदायी स्वरूप वाले, ज्ञान के साक्षात् विग्रह रूप है। जो संसार के द्वन्द्वों(सुख-दुःख) से रहित, व्यापक आकाश के सदृश (निर्लिप्त) है, जो एक ही परमात्म तत्त्व (तत्त्वमसि) को सदैव लक्ष्य किये रहते है। जो एक है, नित्य है, सदैव शुद्ध स्वरूप है, अचल रहने वाले
श्रीदत्त भगवान् के लीला प्रसंग
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जो सदा ही आनन्दरूप, श्रेष्ठ सुखदायी स्वरूप वाले, ज्ञान के साक्षात् विग्रह रूप है। जो संसार के द्वन्द्वों(सुख-दुःख) से रहित, व्यापक आकाश के सदृश (निर्लिप्त) है, जो एक ही परमात्म तत्त्व (तत्त्वमसि) को सदैव लक्ष्य किये रहते है। जो एक है, नित्य है, सदैव शुद्ध स्वरूप है, अचल रहने वाले
लग्यौ ललकि मुख कमल विलोकन, भूलि गई सुधि ग्राह ग्रसन की। मनु रथ पै आवत दरसावत, भुज भूषित जन सिर परसन की।
लग्यौ ललकि मुख कमल विलोकन, भूलि गई सुधि ग्राह ग्रसन की। मनु रथ पै आवत दरसावत, भुज भूषित जन सिर परसन की।
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लग्यौ ललकि मुख कमल विलोकन, भूलि गई सुधि ग्राह ग्रसन की। मनु रथ पै आवत दरसावत, भुज भूषित जन सिर परसन की।
रास रसिक गोपाल लाल, ब्रजबाल-संग बिहरत बृंदाबन। सप्त सुरनि मुरली बाजति, धुनि सुनि मोहे सुर-नर-गंध्रब-पन।।
रास रसिक गोपाल लाल, ब्रजबाल-संग बिहरत बृंदाबन। सप्त सुरनि मुरली बाजति, धुनि सुनि मोहे सुर-नर-गंध्रब-पन।।
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रास रसिक गोपाल लाल, ब्रजबाल-संग बिहरत बृंदाबन। सप्त सुरनि मुरली बाजति, धुनि सुनि मोहे सुर-नर-गंध्रब-पन।।